अनादिकाल काल से चले आ रहे सनातन धर्म की जय हो

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Sunday 4 September 2016

मन्दिरो पर पंचरँगा ध्वज और राजा मान सिंह आमेर

आप सभी को सूचित करते हुवै हर्ष हो रहा है कि,
आज दिनांक 4 सितम्बर 2016 को मुरलीपुरा जयपुर में सर्च एण्ड एज्युकेशन में हुई मिटिंग में राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह कि कार्य योजना तय कि गयी ।

राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह 29 जनवरी 2017 को जयपुर में मनाया जायेगा ।।

इतिहास शुद्धिकरण अभियान
निवेदक - बलवीर सिंह राठौड़ डढे़ल
मंदिरों पर पंचरंगा ध्वज और राजा मानसिंह आमेर

किसी भी राजा या धर्म की ध्वजा उनके वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बल और इष्टदेव का प्रतीक होता है। हर राजा, देश या धर्म की अपनी अपनी अलग अलग रंग की ध्वजा (झण्डा) होती है। सनातन धर्म के मंदिरों में भगवा व पंचरंगा ध्वज लहराते नजर आते है।

भगवा रंग सनातन धर्म के साथ वैदिक काल से जुड़ा है, हिन्दू साधू वैदिक काल से ही भगवा वस्त्र भी धारण करते आये है। लेकिन मुगलकाल में सनातन धर्म के मंदिरों में पंचरंगा ध्वज फहराने का चलन शुरू हुआ। जैसा कि ऊपर बताया जा चूका है ध्वजा वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बल और इष्टदेव का प्रतीक होती है।
अपने यही भाव प्रकट करने के लिए आमेर के राजा मानसिंह ने कुंवर पदे ही अपने राज्य के ध्वज जो सफ़ेद रंग का था को पंचरंग ध्वज में डिजाइन कर स्वीकार किया।

राजा मानसिंहजी ने मुगलों से सन्धि के बाद अफगानिस्तान (काबुल) के उन पाँच मुस्लिम राज्यों पर आक्रमण किया, जो भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे, व बदले में भारत से लूटकर ले जाए जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे।

राजा मानसिंह ने उन्हें तहस-नहस कर वहाँ के तमाम हथियार बनाने के कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली मशीनों व कारीगरों को वहाँ से लाकर जयगढ़ (आमेर) में शस्त्र बनाने का कारखाना स्थापित करवाया। इस कार्यवाही के परिणाम स्वरूप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बन्द हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्र करने का अवसर प्राप्त हुआ।

यही नहीं राजा मानसिंह आमेर ने भारतवर्ष में जहाँ वे तैनात रहे वहां वहां उन्होंने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया व नए नए मंदिर बनवाये। मंदिरों की व्यवस्था के लिए भूमि प्रदान की. उड़ीसा में पठानो का दमन कर जगन्नाथपुरी को मुसलमानों से मुक्त कर वहाँ के राजा को प्रबन्धक बनाया। हरिद्वार के घाट, हर की पैडियों का भी निर्माण भी मानसिंह ने करवाया।


मानसिंहजी की इस कार्यवाही को तत्कालीन संतों ने पूरी तरह संरक्षण व समर्थन दिया तथा उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति में हर की पेड़ियों पर उनकी विशाल छतरी बनवाई। यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पाँच यवन राज्यों की विजय के चिन्ह स्वरूप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गई व मन्दिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा। नाथ सम्प्रदाय के लोग "गंगामाई" के भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यशोगान आज भी गाते।

आमेर राज्य के सफ़ेद ध्वज की जगह पंचरंग ध्वज के पीछे की कहानी-

इतिहासकार राजीव नयन प्रसाद ने अपनी पुस्तक "राजा मानसिंह" के पृष्ठ संख्या 111 पर जयपुर के पंचरंग ध्वज के बारे में कई इतिहासकारों के सन्दर्भ से लिखा है- "श्री हनुमान शर्मा ने अपनी पुस्तक "जयपुर के इतिहास" में लिखा है कि जयपुर पंचरंगा ध्वज की डिजाइन मानसिंह ने बनायी थी। जब वह काबुल के गवर्नर थे। इसके पहले राज्य का ध्वज श्वेत रंग था।

श्री शर्मा आगे चलकर कहते है कि जब मनोहरदास जो मानसिंह का एक अधिकारी था, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश के अफगानों से लड़ रहा था। उसने लूट के माल के रूप में उनसे भिन्न-भिन्न पांच रंगों के ध्वज प्राप्त किये थे। ये ध्वज नीले, पीले, लाल, हरे और काले रंग के थे।

मनोहरदास ने कुंवर को सुझाव दिया कि राज्य का ध्वज कई रंगों का होना चाहिये केवल श्वेत रंग का नहीं। इस सुझाव को शीघ्र स्वीकार कर लिया गया। उस समय से जयपुर राज्य का ध्वज पांच रंगों वाला हो गया। ये रंग है नीला, पीला, लाल और काला।

श्री शर्मा के कथन के पीछे स्थानीय परम्परा है। जयपुर के लोग इस कथन की पुष्टि करते है कि राज्य का पंचरंगा झण्डा सबसे पहले कुंवर मानसिंह ने तैयार किया था। उस समय वे काबुल के गवर्नर थे। इसके अतिरिक्त श्री पट्टाभिराम शास्त्री जो महाराजा संस्कृत कालेज जयपुर के प्रिंसिपल थे ने अपने जयवंश महाकाव्य की भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया कि जयपुर के पंचरंग ध्वज की कल्पना मानसिंह द्वारा की गई थी।"

रियासती काल में झंडे की वंदना में यह उल्लेखित है:-
मान ने पांच महीप हराकर,
पचरंगा झंडा लहराकर,
यश से चकित किया जग सारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
 राजा मानसिंह आमेर और सनातन धर्म

आमेर के इतिहास प्रसिद्ध राजा मानसिंह सनातन धर्म के अनन्य उपासक थे. वे सनातन धर्म के सभी देवी और देवताओं के भक्त थे व स्वधर्म में प्रचलित सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करते थे| उनकी धार्मिक आस्था पर भले ही समय समय पर किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रभाव रहा हो, पर वे हमेशा एक आम राजपूत की तरह अपने ही कुलदेवी, कुलदेवता व इष्ट के उपासक रहे| अपनी दीर्घकालीन वंश परम्परा के अनुरूप राजा मानसिंह ने सभी सम्प्रदायों के संतों का आदर किया पर उनके जीवन पर रामभक्त संत दादूदयाल का सर्वाधिक प्रभाव रहा. यद्धपि राजा मानसिंह सनातन धर्म के दृढ अनुयायी रहे फिर भी वे धर्मान्धता और अन्धविश्वास से मुक्त धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत थे. जिसकी पुष्टि रोहतास किले में एक पत्थर पर उनके द्वारा उत्कीर्ण करवाई एक कुरान की आयात से होती है, जिसमें कहा गया है कि- "धर्म का कोई दबाव नहीं होता, सच्चा रास्ता झूठे रास्ते से अलग होता है|"

राजा मानसिंह के काल में अकबर ने धर्म क्षेत्र में नया प्रयोग किया और अपने साम्राज्य में एक विश्वधर्म की स्थापना के लिए "दीने इलाही" धर्म विकसित किया| राजा मानसिंह अकबर के सर्वाधिक नजदीकी व्यक्ति थे, फिर भी अकबर की लाख कोशिशों के बाद भी वे अपने स्वधर्म से एक इंच भी दूर हटने को तैयार नहीं हुये| अकबर के दरबारी इतिहासकार बदायुनी का कथन है कि "एक बार 1587 में जब राजा मानसिंह बिहार, हाजीपुर और पटना का कार्यभार संभालने के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे तब बादशाह ने उसे खानखाना के साथ एक मित्रता का प्याला दिया और दीने इलाही का विषय सामने रखा| यह मानसिंह की परीक्षा लेने के लिए किया गया| कुंवर ने बिना किसी बनावट के कहा अगर सेवक होने का मतलब अपना जीवन बलिदान करने की कामना से है तो मैंने अपना जीवन पहले ही अपने हाथ में ले रखा है| ऐसे में और प्रमाण की क्या जरुरत| अगर फिर भी इस बात का दूसरा अर्थ है और यह धर्म से सम्बन्धित है तो मैं निश्चित रूप से हिन्दू हूँ|"

Raja Man Singh Amer and Hinduism

इस तरह राजा मानसिंह ने अकबर द्वारा मित्रतापूर्वक धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने स्वधर्म में अप्रतिम आस्था प्रदर्शित की| रॉयल ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के जरनल में मि. ब्लौकमैन ने अपने लेख में लिखा है- "अकबर के अनुयायी मुख्यरूप से मुसलमान थे| केवल बीरबल को छोड़कर जो आचरणहीन था, दूसरे किसी हिन्दू सदस्य का नाम धर्म परिवर्तन करने वालों में नहीं था| वृद्ध राजा भगवंतदास, राजा टोडरमल और राजा मानसिंह अपने धर्म पर दृढ रहे यद्धपि अकबर ने उनको परिवर्तित करने की चेष्टा की थी|

राजा मानसिंह ने सनातन धर्म शास्त्रों के साथ साथ कुरान का भी गहन अध्ययन किया था और उसकी मूलभूत बातों से वे परिचित थे| मुंगेर में दौलत शाह नाम के एक मुस्लिम संत ने भी राजा मानसिंह को इस्लाम की शिक्षाओं से प्रभावित कर उनका धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश की पर राजा मानसिंह मानते थे कि परमात्मा की मोहर सबके हृदय पर है| यदि किसी की कोशिश से मेरे हृदय का वह ताला हटा सकती है तो मैं उसमें तत्काल विश्वास करने लग जावुंगा| यानी वह किसी भी धर्म को तभी स्वीकार करने को तैयार है बशर्ते वह धर्म उनके मन में सत्यज्ञान का उदय कर सके| इस तरह अकबर के साथ कई मुस्लिम सन्तों की चेष्टा भी राजा मानसिंह की स्वधर्म में अटूट आस्था को नहीं तोड़ सकी| राजा के निजी कक्ष की चन्दन निर्मित झिलमिली पर राधाकृष्ण के चित्रों का चित्रांकन राजा मानसिंह की सनातन धर्म में अटूट आस्था के बड़े प्रमाण है| आमेर राजमहल में राजा मानसिंह का निजी कक्ष में विश्राम के लिए अलग कक्ष व पूजा के लिए अलग कक्ष व पूजा कक्ष के सामने एक बड़ा तुलसी चत्वर, राजमहल के मुख्य द्वार पर देवी प्रतिमा राजा मानसिंह के धार्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए काफी है|


राजा मानसिंह ने अपने जीवनकाल में कई मंदिरों का निर्माण, कईयों का जीर्णोद्धार व कई मंदिरों के रख रखाव की व्यवस्था कर सनातन के प्रचार प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई| यही नहीं राजा मानसिंह ने सनातन मंदिरों के लिए अकबर के खजाने का भरपूर उपयोग किया और दिल खोलकर अकबर के राज्य की भूमि मंदिरों को दान में दी| बनारस में राजा मानसिंह ने मंदिर व घाट के निर्माण पर अपने एक लाख रूपये के साथ अकबर के खजाने से दस लाख रूपये खर्च कर दिए थे, जिसकी शिकायत जहाँगीर ने अकबर से की थी, पर अकबर ने उसकी शिकायत को अनसुना कर मानसिंह का समर्थन किया|

राजा मानसिंह ने अपने राज्य आमेर के साथ साथ बिहार, बंगाल और देश के अन्य स्थानों पर कई मंदिर बनवाये| पटना जिले बरह उपखण्ड के बैंकटपुर में राजा मानसिंह ने एक शिव मंदिर बनवाया और उसके रखरखाव की समुचित व्यवस्था की जिसका फरमान आज भी मुख्य पुजारी के पास उपलब्ध है| इसी तरह गया के मानपुर में भी राजा ने एक सुन्दर शिव मंदिर का निर्माण कराया, जिसे स्वामी नीलकंठ मंदिर के नाम से जाना जाता है| इस मंदिर में विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति की प्रतिमाएं भी स्थापित की गई थी| मि. बेगलर ने बंगाल प्रान्त की सर्वेक्षण यात्रा 1872-73 की अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि- "राजा मानसिंह ने बड़ी संख्या में मंदिर बनाये और पुरानों का जीर्णोद्धार करवाया| ये मंदिर आज भी बिहार में बंगाल के उपखंडों में विद्यमान है| रोहतास किले में भी राजा मानसिंह द्वारा मंदिर बनवाये गए थे|

मथुरा के तत्कालीन छ: गुंसाईयों में से एक रघुनाथ भट्ट के अनुरोध पर राजा मानसिंह ने वृन्दावन में गोविन्ददेव का मंदिर बनवाया था|

आमेर के किले शिलादेवी का मंदिर भी राजा मानसिंह की ही देन है| शिलादेवी की प्रतिमा राजा मानसिंह बंगाल में केदार के राजा से प्राप्त कर आमेर लाये थे| परम्पराएं इस बात की तस्दीक करती है कि राजा मानसिंह ने हनुमान जी की मूर्ति को और सांगा बाबा की मूर्ति को क्रमश: चांदपोल और सांगानेर में स्थापित करवाया था| आज भी लोक गीतों में गूंजता है-

आमेर की शिलादेवी, सांगानेर को सांगा बाबो ल्यायो राजा मान|

आमेर में जगत शिरोमणी मंदिर का निर्माण कर उसमें राधा और गिरधर गोपाल की प्रतिमाएं भी राजा मानसिंह द्वारा स्थापित करवाई हुई है|
मंदिर निर्माणों के यह तो कुछ ज्ञात व इतिहास में दर्ज कुछ उदाहरण मात्र है, जबकि राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के अनुयायियों हेतु पूजा अर्चना के के कई छोड़े बड़े असंख्य मंदिरों का निर्माण कराया, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया और कई मंदिरों के रखरखाव की व्यवस्था करवाकर एक तरह से सनातन धर्म के प्रसार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई|
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पर अफ़सोस जिस राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के प्रसार से इतना सब कुछ किया आज उसी राजा मानसिंह को वर्तमान हिन्दुत्त्ववादी कट्टर सोच के लोग अकबर का चरित्र हनन करते समय मानसिंह का भी चरित्र हनन कर डालते है| मानसिंह ने राणा प्रताप के खिलाफ युद्ध लड़ा, उसके लिए वे राणा के दोषी हो सकते है, लेकिन मानसिंह ने अकबर जैसे विजातीय के साथ अपने पुरखों द्वारा उस समय की तत्कालीन आवश्यकताओं व अपने राज्य के विकास हेतु की गई संधि को निभाते हुये, उसी की सैनिक ताकत से हिदुत्त्व की जो रक्षा की वह तारीफे काबिल है। लेकिन अफसोस वर्तमान पीढी बिना इतिहास पढ़े देश की वर्तमान परिस्थियों से उस काल की तुलना करते उनकी आलोचना करने में जुटी रहती है|

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